21 फ़रवरी, 2016

है रीत यही इस जग की

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है रीत कैसी  इस जग की 
परिवर्तन में देर नहीं लगती 
बचपन जाने कहाँ खो जाता 
यौवन की दहलीज पर आ 
वह भी न टिक पाता 
उम्र यौवन की
अधिक नहीं होती 
जल्द ही दस्तक
 वानप्रस्थ की होती 
यह भी विदा ले लेती 
अंतिम पड़ाव आते ही 
मोह भंग होने लगता 
और जाने कहाँआत्मा
 देह त्याग भ्रमण करती 
देह विलीन हो जाती 
पञ्च तत्व में मिल जाती 
केवल यादें रह जातीं 
जाने वाला चला जाता 
बीता कल पीछे छोड़ जाता 
आगमन गमन का 
क्रम निरंतर चलता 
संसार की चक्की में
 सभीको पिसना होता
इससे कोई न बचता 
जन्म मरण दोनो ही 
पूर्व निर्धारित होते 
जन्म का पता होता 
पर मृत्यु कहाँ से
कैसे कब वार करेगी 
नियंता ही जानता 
 पर अपने कर्मों का हिसाब
 सभी को देना होता 
इस लोक में या परलोक में 
है रीत यही इस जग की
 कुछ भी नया नहीं है
आशा




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