25 अक्टूबर, 2018

आज के परिप्रेक्ष्य में






आज के परिप्रेक्ष्य में  
आधुनिकता के वेश में
जो पहुँँची चरम पर
बहुत बदलाव आया है
छोटे घरौंदों में रहने वाले
नहीं होते अधिक कद्दावर
और अधिक रसूख वाले
पर होते विशाल हृदय वाले
सरल सहज और
स्नेह से भरे
जब भी मिलते
आत्मीयता से मिलते
घर जैसा घर लगता
कहीं भी दिखावा न होता
सुदामा के चावल
मिल बाँँट कर खाते
पर शहरीकरण के जोश में
न रह गया है होश अब  
सब रिश्ते बदल गए 
सभी  मुँँह पर मुखौटा
लगा कर घूूमते हैं 
अन्दर कुछ 
पर बाहर कुछ 
वह सम्मान
मेहमान का
तन मन धन
से होता था 
तिरोहित सा हो गया 
अब सोच बदल गया है
कहाँ आ गई मुसीबत
जाने कब जाना चाहेगी
यह भी भूल जाते हैं
कोई अपना कीमती
समय निकाल कर
मिलने आया है
सब यहीं बह जाता 
मिट्टी के घड़े के 
रिसते पानी की तरह
रह जाता है पानी
बिना ठंडा हुए
न तो मिठास
न प्राकृतिक स्वाद
सभी बातें सतही
बड़े से बैनर के लिए
नारों में समा गई हैं
कद्दावर लोगों से
अच्छे करोड़ दर्जे
सामान्य जन
जो हैं बहुत दूर
आधुनिकता से |
वसुधैव कुटुम्बकम की
अवधारणा रह गई
केवल कल्पना हो कर 
सहेजी गई किताबों में |


आशा  |




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