बंद ठण्डे कमरों में बैठी सरकार
नीति निर्धारित करती
पालनार्थ आदेश पारित करती
पर अर्थ का अनर्थ ही होता
मंहगाई सर चढ़ बोलती
नीति जनता तक जब पहुँचती
अधिभार लिए होती
हर बार भाव बढ़ जाते
या वस्तु अनुपलब्ध होती
पर यह जद्दोजहद केवल
आम आदमी तक ही सीमित होती
नीति निर्धारकों को
छू तक नहीं पाती
धनी और धनी हो जाते
निर्धन ठगे से रह जाते
बीच वाले मज़े लेते !
न तो दुःख ही बाँटते
न दर्द की दवा ही देते
ये नीति नियम किसलिए और
किसके लिए बनते हैं
आज तक समझ न आया !
प्रजातंत्र का फलसफा
कोई समझ न पाया !
शायद इसीलिये किसीने कहा
पहले वाले दिन बहुत अच्छे थे
वर्तमान मन को न भाया !
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 02/04/2019 की बुलेटिन, " २ अप्रैल को राकेश शर्मा ने छुआ था अंतरिक्ष - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |
हटाएंआशा सक्सेना
वाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ज्योति जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआशा सक्सेना
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंआशा