क्या सोच है मेरा ?
क्यों स्वप्न बुन रहा हूँ
यह सब किसलिए है
किस के लिए सज रहा हूँ?
मुंह में शब्द सोए पड़े हैं
आँखें खुलना नहीं चाहतीं
फिर भी अपने उद्गारों को
स्पष्ट करना चाहता हूँ मैं
जनता हूँ जगहसाई को
पर मझे भय नहीं इसका
जो सच है वह नहीं बदल सकता
तभी अपनी भावनाओं को
शब्दों का चोला पहना रहा हूँ मैं
मैं कहाँ तक सफल रहा हूँ
कैसे जान पाऊँ ?
फिर भी तुझे अपना बनाने की
कोशिश में लगा हूँ मैं
जो भी इम्तहान देना पड़े दूंगा
बाक़ी भाग्य पर है निर्भर
आशा लिए जिए जा रहा हूँ मैं |
आशा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 29.8.2019 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3442 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सर |
सुन्दर सृजन ! अच्छी रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
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