जहाँ देखती हूँ
वहीं तुझे पाती हूँ
तेरी गूँज सुनाई देती
सृष्टि के
कण कण में |
ऊँची नीची
पगडंडी पर
पहाड़ियों से घिरी वादी में
बढ़ता कलरव परिंदों का
मन हुआ गाने का
उनका साथ निभाने का
जैसे ही स्वर छेड़ा
अपने ही स्वर गूँजे
प्रत्यावर्तित हुए |
विचारों में खोई आगे बढ़ी
एकांत में बैठ सरिता तट पर
देखा उर्मियाँ टकराती चट्टान से
तभी विशिष्ट ध्वनि होती
कानों में गुंजन करती |
मैंने पाया एक सुअवसर
प्रकृति के सानिध्य का
सुना संगीत साथ देते
कलकल ध्वनि करते जल का |
तभी दूर से
आती ध्वनि
व्यवधान बनी कर्ण कटु लगी
टूटी श्रंखला विचारों की
सोचा यह कहाँ से आई |
अनायास बादल गरजे
बादलों के गर्जन तर्जन की
टकराई ध्वनि पहाड़ियों से
हुई प्रत्यावर्तित
गूँज उसकी तीव्र हुई
क्या यही अनुगूँज है ?
शब्द नश्वर नहीं होते
जब भी कुछ कहा जाता
वे विलीन हो जाते
किसी नि;सर्ग
में
कहीं न कहीं सुनाई देती
उनकी अनुगूँज भुवन में
जिसे हम अनुभव करते !
अनुगूँज जब होती
सत्य जीवन का उजागर होता
जिसे भौतिक और नश्वर
जगत न जान पाता |
आशा
प्रकृति के सान्निध्य में गूँजते नाद को सुन्दर अभिव्यक्ति देती एक खूबसूरत रचना ! बहुत सुन्दर !
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