रूप तुम्हारा महका महका
जिस्म बना संदल सा
क्या समा बंधता है
जब तुम गुजरती हो उधर से |
हजारों यूँ ही मर जाते हैं
क्या समा बंधता है
जब तुम गुजरती हो उधर से |
हजारों यूँ ही मर जाते हैं
तुम्हारे मुस्कुराने से
जब भी निगाहों के वार चलाती हो
परदे की ओट से|
और देती हो जुम्बिश हलकी सी जब
अपनी काकुल को
उसका कम्पन और
लव पर आती सहज मुस्कान
लव पर आती सहज मुस्कान
निगाहों के वार देने लगे
सन्देश जो रहा अनकहा |
कहने की शक्ति मन में
छिपे शब्दों की हुई खोखली
छिपे शब्दों की हुई खोखली
फिर भी हजारों मर जाते हैं
तुम्हारे मुस्कुराने से |
इन अदाओं पर
लाख पहरा लगा हो
कठिन परीक्षा से गुजर जाते हैं
बहुत सरलता से |
आशा
तुम्हारे मुस्कुराने से |
इन अदाओं पर
लाख पहरा लगा हो
कठिन परीक्षा से गुजर जाते हैं
बहुत सरलता से |
आशा
वाह बहुत सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए आभार सर |
सूचना हेतु आभार सर |
जवाब देंहटाएंक्या बात है ! इस रूपसी पर तो हम भी मर मिटे !
जवाब देंहटाएंशुभ पर्व की मंगलकामनाएं
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद गगन जी |
सुन्दर सृजन दी जी
जवाब देंहटाएंसादर
धन्यवाद अनीता जी टिप्पणी के लिये |
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