ख्यालों को बुन कर शब्दों में
एक दुशाला बनाया है मैंने
बड़ें जतन से उसे मन के
बक्से में सहेजा मैंने |
जब भी दिल चाहता ओढ़ने का उसे
बहुत प्यार से निकालती हूँ
कुछ काल तक पहन कर
तह करके रखती हूँ मैं |
यह भी चिंता रहती है
कहीं कट पिट ना जाए
कहीं रंग ना खो जाए विवर्ण ना हो जाए
फिर से उसे नया रंग दिलवा कर
जब भी घारण करती हूँ
उनमें दुगनी चमक आ जाती है
नए ख़याल शामिल हो जाते हैं |
आशा
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 16 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयशोदा जी आभार आपका सूचना के लये |
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-11-2019) को "हिस्सा हिन्दुस्तान का, सिंध और पंजाब" (चर्चा अंक- 3522) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार सर |
बेहतरीन अभिव्यक्ति आदरणीया.
जवाब देंहटाएंख़्याल का बेजोड़ सृजन
सादर
धन्यवाद अनीता जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंनए नए खयाल दिमाग मे आते रहने चाहिए।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति।
धन्यवाद टिप्पणी के लिए नितीश जी |
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी |
हटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नीलांश जी टिप्पणी के लिए |
वाह ! ख्यालों का यह दुशाला ऐसे ही चमकता रहे और हमें सुन्दर सुन्दर रचनाएं पढ़ने को मिलती रहें !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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