कटते
नहीं दिन रात
समय गुजरा धीरे से
समय काटना हुआ दूभर
जिन्दगी
हुई भार अब तो
मिलेगी इससे निजाद कब |
आँखें पथराईं अब तो
समय काटे नहीं कटता नहीं
ना ही दिन और रात
कितनी प्रतीक्षा और करनी होगी
कोई बतलाता नहीं
ना ही भविष्यवाणी करता
कितनी और प्रतीक्षा करूं
दिल पर भार लिए जी रही हूँ
क्या अब खुशहाल जिन्दगी
का कोई भी पल
नहीं है भाग्य में मेरे
अब तो हार गई हूँ
इस जिन्दगी को ढोते ढोते
क्या लाभ ऐसी जिन्दगी का
जो बोझ बन कर रह गई है सब पर
कोई कार्य नहीं हो पाता बिना बैसाखी के
कैसे समझाऊँ अपने मन को
कहना बहुत सरल है
शायद प्रारब्ध में यही है
पर सच्चाई तो यही है
जन्म मरण किसी के हाथ में नहीं है |
आशा
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 16 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद ओंकार जी |
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद ज्योती जी टिप्पणी के लिए |
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ऐसी निराशा भरी रचनाएं कम पसंद आती हैं मुझे ! वैसे शिल्प अच्छा है !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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