04 जून, 2020

दस्तूर जमाने का

                                       जमाने का है दस्तूर यही
हम अलग कहाँ हैं उससे  
 जैसे  रीत रिवाज  होगे  
 उस में ही बहते जाएंगे |
चलन जमाने का भी देखेंगे
जो भी  रंग होगा दुनिया का
 उसी में रंगते  जाएंगे
सुख दुःख  में शामिल होंगे |
समाज से अलग कभी
सोच भी न पाएंगे
अलगाव सहन नहीं होगा
उसकी धारा में बहते जाएंगे |
अगर अलग हुए समाज से
 अपना वजूद खो देंगे
 इसे सहन न कर पाएंगे
बिना अस्तित्व के  कैसे जी पाएंगे 
आशा

10 टिप्‍पणियां:

  1. सादर नमस्कार,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (05-06-2020) को
    "मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है," (चर्चा अंक-3723)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।

    "मीना भारद्वाज"

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  2. सही बात है समाज का हिस्सा हैं तो समाज से अलग कैसे जायेंगे ! सार्थक सृजन !

    जवाब देंहटाएं

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