जमाने का है दस्तूर यही
हम अलग कहाँ हैं उससे
जैसे रीत रिवाज होगे
उस में ही बहते जाएंगे |
चलन जमाने का भी देखेंगे
जो भी रंग होगा दुनिया का
उसी में रंगते जाएंगे
सुख दुःख में शामिल होंगे |
समाज से अलग कभी
सोच भी न पाएंगे
अलगाव सहन नहीं होगा
उसकी धारा में बहते जाएंगे |
अगर अलग हुए समाज से
अपना वजूद खो देंगे
इसे सहन न कर पाएंगे
बिना अस्तित्व के कैसे जी पाएंगे
आशा
आशा
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (05-06-2020) को
"मधुर पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है," (चर्चा अंक-3723) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभार मीना जी |
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसही बात है समाज का हिस्सा हैं तो समाज से अलग कैसे जायेंगे ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर कविता !
जवाब देंहटाएं