लागलपेट नहीं कोई
ना दुराव छिपाव कहीं
झूट प्रपंच से रहता दूर
मन महकता चन्दन सा |
हर बात सत्य नहीं होती
आधुनिकता के इस युग में
जैसा देखता वही सोचता
उपयोग न करता बुद्धि का |
जो जैसा दिखता है , नहीं है वैसा
बाहर से है कुछ और
अन्दर से है रंग और
रंग भीतर का सर चढ़ बोलता |
मुंह पर मुखोटा लगा कर
दुनिया से तो बचा रहता
सत्य उजागर होते ही वह
मुंह छिपाए फिरता |
कटु सत्य सहन नहीं होता
मन विद्रोही यदि होता
बगावत का झंडा फहराता
समाज से अलगाव होता |
आशा
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 31 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार दिग्विजय जी |
हटाएंसच है ! एक चहरे पे कई चहरे लगा लेते हैं लोग ! यथार्थवादी रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार सर |