31 जुलाई, 2020

जैसा दिखता वैसा होता नहीं


लागलपेट नहीं  कोई
ना  दुराव छिपाव कहीं  
झूट प्रपंच से रहता दूर
मन महकता चन्दन सा |
हर बात सत्य नहीं होती
 आधुनिकता के इस  युग में
 जैसा देखता  वही सोचता
उपयोग न करता बुद्धि का |
जो जैसा दिखता है , नहीं है वैसा 
बाहर से है कुछ और  
अन्दर से है रंग और
रंग भीतर का सर चढ़ बोलता |
मुंह पर मुखोटा लगा कर
दुनिया से तो  बचा रहता
सत्य उजागर होते ही वह
मुंह छिपाए फिरता  |
कटु सत्य सहन नहीं होता
मन विद्रोही यदि होता    
 बगावत का झंडा फहराता
समाज से अलगाव  होता |

आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 31 जुलाई 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सच है ! एक चहरे पे कई चहरे लगा लेते हैं लोग ! यथार्थवादी रचना !

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  3. धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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  4. सुप्रभात
    सूचना हेतु आभार सर |

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