सात घोड़ों के रथ पर हो सवार
प्रातः से सांध्य बेला तक
प्रातः से सांध्य बेला तक
आदित्य तुम्हारे रूप अनूप
सुबह तुम्हारी रश्मियाँ अटखेलियाँ करतीं
हरी भरी वादियों में |
कभी धूप कभी छाँव होती
बादलों के संग तुम्हारी लुका
छिपी में
जितना आनंद आता
शब्दों में बयान मुश्किल होता |
शब्दों में बयान मुश्किल होता |
कभी वृक्षों की ओट से झांकना
कभी तेज तपता दहकता रूप दोपहर
में
कभी आगमन कभी पलायन
है यह कैसा खेल तुम्हारा |
सांझ होते ही अस्ताचल में जा छिपते
दूर से थाली से दिखते
रात को भी विश्राम न करते
चाँद की रौशनी है तुमसे |
है चाँद तुम्हारा ऋणी
वह यह कभी नहीं भूलता
भोर होते ही तारों के संग
व्योम में कहीं दुबक जाता |
खेल ही खेल में तुम्हारा
सारा दिन कहाँ निकल जाता
पर जो आनंद हमें आता
उससे कोई दूर नहीं कर पाता |
आशा
आशा
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंखूबसूरत भाव
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्मिता टिप्पणी के लिए |
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंवाह ! सुन्दर चित्रात्मक रचना ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार अनीता जी |
सुंदर चर्चा प्रस्तुति
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