30 जुलाई, 2020

सूर्य की अटखेलियाँ



 सात घोड़ों के रथ पर हो सवार 
 प्रातः से सांध्य बेला तक
आदित्य तुम्हारे रूप अनूप
सुबह तुम्हारी रश्मियाँ अटखेलियाँ करतीं
हरी भरी वादियों में |
कभी धूप कभी छाँव होती
बादलों के संग तुम्हारी  लुका छिपी में
जितना आनंद आता 
शब्दों में बयान  मुश्किल होता |
कभी वृक्षों की ओट से  झांकना
कभी तेज तपता दहकता  रूप दोपहर में
कभी आगमन कभी पलायन
है यह कैसा खेल तुम्हारा |
सांझ होते ही अस्ताचल में जा छिपते
दूर से थाली से दिखते
रात को भी विश्राम न करते  
चाँद की रौशनी है तुमसे  |
है चाँद तुम्हारा ऋणी  
वह यह कभी नहीं  भूलता
  भोर होते ही तारों के संग
 व्योम में कहीं  दुबक जाता |
खेल ही खेल में तुम्हारा
 सारा दिन कहाँ निकल जाता
पर  जो आनंद हमें  आता
 उससे कोई दूर नहीं कर  पाता |
आशा




9 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. वाह ! सुन्दर चित्रात्मक रचना ! बहुत खूब !

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  3. धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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  4. सुप्रभात
    सूचना हेतु आभार अनीता जी |

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