खेल ही में समय बिताया
कभी सोचा नहीं भविष्य का
वर्तमान में जीने के लिए
बीते कल को याद न किया |
केवल स्वप्नों में डूबी रही
वर्तमान की चमक दमक ने
इस
तरह मोहा मुझे
आगे का मार्ग भटक गई |
बहुत चाहा फिर भी
आगे प्रगति कर न सकी
कोई मददगार न मिला
सही
मार्ग दिखाने को |
कूपमंडूक सी सिमटी रही
खुद के आसपास अपने आप में
कूए से बाहर आ न सकी
उसे ही अपनी दुनिया समझी |
आखिर दुनिया है कैसी
कितने रंग छाए है उसमें
जब देखा ही नहीं
तब क्यूँ दोष दू किसी को |
वर्तमान करता आकर्षित
उसमें
ही रहना चाहती हूँ
श्वासों का क्या ठिकाना
आगे पीछे की क्या सोचूँ ?आशा
सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए शास्त्री जी |
हटाएंवाह ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |