१-मनमोहन के संग किये दो दो हाथ
हाथों में टिपरी का जोड़ा लिए साथ
डांडिया खेलने का आनंद ही है कुछ और
रंग आ गया पांडाल में जोश छा रहा चहु ओर |
२-डांडिया खेलने का जोश
उसे कर देता मदहोश
कई दिन से सोच रही
क्या ड्रेस पहनेगी उस दिन |
३-श्वेत धवल गोल गोल ओलों ने
बरफ के टुकड़ों ने ढाया कहर
किसान बेबस हुए दुआ मांगी प्रभू से
देख कर आसमान स्याह |
आशा
४-बीती यादों के साए में जिए जा रहे हैं
उन स्वर्णिम पलों की चाह में
खुद को भुला रहे हैं
जहां ठहराव सा लगा था कांटो भरे जीवन में |
५- वह जीवन क्या जो किसी चाह से न उपजा हो
वह गीत क्या जो स्वरों में न बंधा हो
वे सब तो रह जाते हैं केवल शोर हो कर
दूरियां हो जाती है वास्तविकजिन्दगी से |
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२९-०८-२०२०) को 'कैक्टस जैसी होती हैं औरतें' (चर्चा अंक-३८०८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
सुप्रभात
हटाएंसूचना हेतु आभारअनीता जी |
सार्थक और सुन्दर।
जवाब देंहटाएंदूसरे लोगों के ब्लॉग पर भी टिप्पणी किया करो।
सुप्रभात
हटाएंधन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |
कोशिश तो करूंगी टिप्पणी डालने की |असल में मुझे लकवा हो गया है |एक हाथ से टैप करने में बहुत कठिनाई होती है | पढ़ तो सब की पोस्ट लेती हूँ |
वाह
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हिन्दि गुरू जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंसुन्दर क्षणिकाएं !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएं