लगी है दुकान उलझनों की
मानों शहर के मैदान में
सजी है दुकाने पठाकों की |
कब विस्फोट हो जाए
किसी को मालूम नहीं पड़ता
सब बच निकलना चाहते हैं
इस बाजार से पतली गली से |
मन होकर रह गया है संचय स्थल
भरा हुआ कई समस्याओं से
अब तो कील रखने की भी
जगह नहीं है यहाँ |
हर ओर से ना का पहाड़ा
कोई आशा नहीं रही शेष
फिर कोई कहाँ जाए
दिल का बोझ उतारने को |
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्मिता टिप्पणी के लिए |
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 30 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंयशोदा जी सूचना के लिए आभार |
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंधन्यवाद हिंदी गुरू जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 1 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सूचना हेतु आभार सर |
हटाएंसार्थक रचना ! जीवन नाम ही है सुख दुःख के झूले का ! धुप छाँव की तरह ये दिन गुज़र जाते हैं ! समस्याएँ हैं तो उनके हल भी होते ही हैं ! धैर्य के साथ उनको तलाशने की ज़रुरत होती है !
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