04 अगस्त, 2020

व्यथा मन की



जब विष बुझे  शब्दों के बाण
 मुहँ के  तरकश से निकलते
क्षत विक्षत मन करते
 उसे  विगलित करते | 
दिल का सारा चैन हर लेते
व्यथा मन की जानने की
किसी को यूं तो जिज्ञासा न होती
जो भी जानना चाहते ठहरते |
परनिंदा का आनंद उठाते   
 अपनी उत्सुकता को
 और भी हवा देते |
 मन की व्यथा बढ़ती जाती
खुद मुखर होने को 
 बेचैन हो  जाती |
जब तक  मन का हाल
 बयान नहीं करती
अंतस में करवटें
 बदलने लगती  |
व्यथा मन की
 इतनी बढ़ जाती
 चहरे के  भावों पर
 स्पष्ट दिखाई देती|
 सोचना पड़ता
 कोई तो निदान होगा
 जग से इसे छिपाने का
कोई हल नजर नहीं आता  
इससे निजात पाने का |
जब व्यथा विकराल रूप लेती
 हद से गुजर जाती  
बहुत समय लगता 
मन को सामान्य होने में  |
हर  शब्द तीर सा  चुभता 
अंतस  में बहुत कष्ट होता  
 दिल के टुकड़े हजार करता
जाने अनजाने में |
आशा


9 टिप्‍पणियां:

  1. कटु शब्दों से बढ़ कर कष्टप्रद अन्य कोई अस्त्र नहीं ! इससे जनित पीड़ा एवं व्यथा अकथनीय ही होती है ! सार्थक रचना १

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  2. संवेदनशील अभिव्यक्ति । बेहतरीन रचना। हार्दिक बधाई ।

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    1. धन्यवाद स्वराज्य करून जी टिप्पणी के लिए |

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  3. सुप्रभात
    धन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |

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  4. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 10 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  5. सुप्रभात
    मेरी रचना को शामिल करने की सूचना हेतु आभार यशोदा जी |

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  6. वाह!आशा जी बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।

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