जब विष बुझे शब्दों के बाण
मुहँ के तरकश से निकलते
क्षत विक्षत मन करते
उसे विगलित करते |
उसे विगलित करते |
दिल का सारा चैन हर लेते
व्यथा मन की जानने की
किसी को यूं तो जिज्ञासा न होती
जो भी जानना चाहते ठहरते |
परनिंदा का आनंद उठाते
परनिंदा का आनंद उठाते
अपनी उत्सुकता को
और भी हवा देते |
और भी हवा देते |
मन की व्यथा बढ़ती जाती
खुद मुखर होने को
बेचैन हो जाती |
बेचैन हो जाती |
जब तक मन का हाल
बयान नहीं करती
बयान नहीं करती
अंतस में करवटें
बदलने लगती |
बदलने लगती |
व्यथा मन की
इतनी बढ़ जाती
इतनी बढ़ जाती
चहरे के भावों पर
स्पष्ट दिखाई देती|
स्पष्ट दिखाई देती|
सोचना पड़ता
कोई तो निदान होगा
कोई तो निदान होगा
जग से इसे छिपाने का
कोई हल नजर नहीं आता
इससे निजात पाने का |
कोई हल नजर नहीं आता
इससे निजात पाने का |
जब व्यथा विकराल रूप लेती
हद से गुजर जाती
हद से गुजर जाती
बहुत समय लगता
मन को सामान्य होने में |
हर शब्द तीर सा चुभता
मन को सामान्य होने में |
हर शब्द तीर सा चुभता
अंतस में बहुत कष्ट होता
दिल के टुकड़े हजार करता
जाने अनजाने में |
जाने अनजाने में |
आशा
कटु शब्दों से बढ़ कर कष्टप्रद अन्य कोई अस्त्र नहीं ! इससे जनित पीड़ा एवं व्यथा अकथनीय ही होती है ! सार्थक रचना १
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंसंवेदनशील अभिव्यक्ति । बेहतरीन रचना। हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्वराज्य करून जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर और सशक्त।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्री जी टिप्पणी के लिए |
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 10 अगस्त 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने की सूचना हेतु आभार यशोदा जी |
वाह!आशा जी बहुत खूबसूरत भावाभिव्यक्ति ।
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