29 सितंबर, 2020

है क्या तुम्हारे मन में


 कितनी बार तुम्हें देखा है मैंने

भावों के पंख लगा कर उड़ते  

उन्मुक्त हो  आसमान में विचरते

रहता जहां एक छत्र  राज्य तुम्हारा |

वर्चस्व सहन नहीं  कर पातीं किसी और का

अपने एकाधिकार क्षेत्र में

 किसी की  धुसपेठ सहन नहीं कर पातीं

बैचेनी तुम्हारे मस्तिष्क में छा जाती |

यूँ तो  शब्दों की कमी नहीं होती

 तुम्हारे मन मस्तिष्क में

दूर की कौड़ी खोज लाती हो

शब्दों को पिरोने में |

भाव बड़ी सरलता से

 शब्दों की माला में सजते

तुम सुन्दर सी माला लिए  हाथों में

अपने प्रियतम को खोजती हो |

तुम्हारी खोज जब ही पूरी होगी

जब माला के लायक मनमीत मिलेगा

तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी

 फूल तुम्हारे दामन में खिलेगा |

नित नया सृजन करोगी

साहित्य में योगदान दोगी

दिन दूनी  रात चौगुनी प्रगति करोगी

अपनी कामना को और परवाज दोगी |

आशा

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