कितनी बार तुम्हें देखा है मैंने
भावों के पंख लगा कर उड़ते
उन्मुक्त हो आसमान में विचरते
रहता जहां एक छत्र राज्य तुम्हारा |
वर्चस्व सहन नहीं कर पातीं किसी और का
अपने एकाधिकार क्षेत्र में
किसी की धुसपेठ सहन नहीं कर पातीं
बैचेनी तुम्हारे मस्तिष्क में छा जाती |
यूँ तो शब्दों की कमी नहीं होती
तुम्हारे मन मस्तिष्क में
दूर की कौड़ी खोज लाती हो
शब्दों को पिरोने में |
भाव बड़ी सरलता से
शब्दों की माला में सजते
तुम सुन्दर सी माला लिए हाथों में
अपने प्रियतम को खोजती हो |
तुम्हारी खोज जब ही पूरी होगी
जब माला के लायक मनमीत मिलेगा
तुम्हारी मनोकामना पूरी होगी
फूल तुम्हारे दामन में खिलेगा |
नित नया सृजन करोगी
साहित्य में योगदान दोगी
दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करोगी
अपनी कामना को और परवाज दोगी |
आशा
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्मिता टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंआमीन ! बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
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