30 सितंबर, 2020

स्वर्णिम दिन बचपन के


 

वे दिन तो थे  स्वर्णिम 

जब था बचपन का राज्य

हमारे परिवार पर

ना कोई बड़ा ना ही  छोटा |

बड़ी जीजी का कहना मानना था जरूरी

मैं और मेरी छोटी बहन उसका कहा  मानते

साथ साथ पढ़ते  एक ही साथ खेलते थे

एक दूसरे से बेहद स्नेह रखते थे |

पर न जाने कैसे दूसरों का

 आगमन हुआ हमारे घर में

उसने पैर पसारे घर में

तब लगा कोई बाँट रहा है हमारे प्यार को |

हद तो जब हुई जब उसकी भाभी के कदम पड़े  

मैं बेचारा यूँ ही खण्डों  में बटा

 हम इस गाँव वे रहे वहीं जहां पहले रहते थे

है  जिम्मेदारी मेरी दौनों घरों की किसी और की नहीं |

किसे प्राथमिकता दूं मेरा मस्तिष्क ही  काम नहीं करता

एक का जरासा भी कुछ किया

आ खड़ी होती मेरे सामने

कटु भाषा की तलवार लिए |

अपनी जिम्मेदारी कभी  समझी नहीं

यदि मैंने कुछ किया किसी के लिए

 पत्नी जी का मुंह चढ़ जाता दो चार दिन के लिए

वह एकाधिकार मुझ पर अपना चाहती |

जैसे मैं हाड़ मॉस का पुतला नहीं हूँ

समझती मुझे  कोई निर्जीव  सामग्री

या जर खरीदा गुलाम जो

उसके पापा ने भेट किया है |

आशा

14 टिप्‍पणियां:

  1. आज की व्यवस्था का कटु यथार्थ !

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      आभार सहित धन्यवाद दिलबाग जी सूचना के लिए |

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. सुप्रभात
    आभार मेरी रचना की सूचना के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  5. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद प्रतिभा जी टिप्पणी के लिए |

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  6. जीवन की कटु सत्यता पिरोई है आपने अपनी इस कविता में...
    मर्मस्पर्शी !!!

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  7. दो पाटन के बीच में साबुत बचा ना कोय ।
    बचपन की भोली साझेदारी काश हम भूल न जाते ।
    दुखती रग सी कविता ।

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