वे दिन तो थे स्वर्णिम
जब था बचपन का राज्य
हमारे परिवार पर
ना कोई बड़ा ना ही छोटा |
बड़ी जीजी का कहना मानना था जरूरी
मैं और मेरी छोटी बहन उसका कहा मानते
साथ साथ पढ़ते एक ही साथ खेलते थे
एक दूसरे से बेहद स्नेह रखते थे |
पर न जाने कैसे दूसरों का
आगमन हुआ हमारे घर में
उसने पैर पसारे घर में
तब लगा कोई बाँट रहा है हमारे प्यार को |
हद तो जब हुई जब उसकी भाभी के कदम पड़े
मैं बेचारा यूँ ही खण्डों में बटा
हम इस गाँव वे रहे वहीं जहां पहले रहते थे
है जिम्मेदारी मेरी दौनों घरों की किसी और की नहीं |
किसे प्राथमिकता दूं मेरा मस्तिष्क ही काम नहीं करता
एक का जरासा भी कुछ किया
आ खड़ी होती मेरे सामने
कटु भाषा की तलवार लिए |
अपनी जिम्मेदारी कभी समझी नहीं
यदि मैंने कुछ किया किसी के लिए
पत्नी जी का मुंह चढ़ जाता दो चार दिन के लिए
वह एकाधिकार मुझ पर अपना चाहती |
जैसे मैं हाड़ मॉस का पुतला नहीं हूँ
समझती मुझे कोई निर्जीव सामग्री
या जर खरीदा गुलाम जो
उसके पापा ने भेट किया है |
आशा
यथार्थवादी रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद स्मिता टिप्पणी के लिए |
हटाएंआज की व्यवस्था का कटु यथार्थ !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 01.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
हटाएंआभार सहित धन्यवाद दिलबाग जी सूचना के लिए |
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है............ पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार मेरी रचना की सूचना के लिए |
सबै दिन रहत न एक समान!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद प्रतिभा जी टिप्पणी के लिए |
जीवन की कटु सत्यता पिरोई है आपने अपनी इस कविता में...
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी !!!
धन्यवाद शरद जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंदो पाटन के बीच में साबुत बचा ना कोय ।
जवाब देंहटाएंबचपन की भोली साझेदारी काश हम भूल न जाते ।
दुखती रग सी कविता ।
धन्यवाद नूपुर जी टिप्पणी के लिए |
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