वह दिन बहुत सुन्दर दिखता है
जहां बिखरी हों रंगीनियाँ अनेक
पर होता कोसों दूर वास्तविकता से
मन को यही बात सालती है |
मनुष्य क्यों स्वप्नों में जीता है
वास्तविकता से परहेज किस लिए
क्या कठोर धरातल रास नहीं आता
यही सोच सच्चाई से दूरी बढाता |
जब भी जिन्दादिली से जीने की इच्छा होती
कुठाराघात हो जाता अरमानों पर
है यह कैसी विडम्बना किसे दोष दिया जाए
मन को संयत रखना है कठिन |
सीमा का उल्लंघन हो यह भी तो है अनुचित
कितनी वर्जनाएं सहना पड़ती हैं
घर की समाज की और स्वयं के मन की
तब भी तो सही आकलन नहीं हो पाता|
कहावत है आसमान से गिरे खजूर पर अटके
केवल स्वप्नों में जीना है धोखा देना खुद को
क्या नहीं है यह सही तरीका सच्चाई से मुंह मोड़ने का
वही हुआ सफल जिसने ठोस धरती पर पैर रखे |
आशा
बेशक ठोस धरातल पर पैर रख कर ही चलना चाहिए ! लेकिन उसमें कल्पना के मनोरम रंग भरने में क्या बुराई है ! जब कल्पना मधुर होगी तो जीवन भी मधुर लगाने लगेगा ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात |टिप्पणी के लिए धन्यवाद ओंकार जी |
हटाएंसुप्रभात |टिप्पणी के लिए धन्यवाद साधना |
हटाएंस्वप्न जीवन को नई दिशा देते हैं
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचना
सार्थक और सारगर्भित रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार अनीता जी |
टिप्पणी के लिए धन्यवाद सर |
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर्।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंवास्तविकता की धरातल पर उकेरी गई रचना हृदयस्पर्शी है - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसच्चाई का ठोस धरातल जीवन में नीरसता भरता है सरसता के लिए स्वप्नों में जीता है इंसान... बहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएं