ओ प्रवासी पक्षी 
 हम थके हारे राह देखते 
हुए क्लांत से 
तुम क्यूँ न आए ?
हर समय  आहट तुम्हारी 
पंख फैला कर उड़ने की  
किस लिए बेचैनी  होती 
मन में हमारे |
क्या तुम राह में भटक गए 
या किसी महामारी से 
भयभीत हुए पथ भूले 
तुम समय पर न आए |
न जाने क्यूँ हमारे नयन तरसे
 तुम्हारे दर्शन को 
हम भूले तुम्हें भी तो कई कार्य 
संपन्न करने होते हैं |  
तुम्हारी अपने साथियों  के प्रति 
अपने किये वादों को
 निभाना पड़ता है 
शयद तभी तुम न आए |
समय पर तुम्हारे आने की
हमारे साथ समय बिताने की 
आदत सी हो गई है 
पर तुम भूले |  
ओ प्रवासी  हमारी भी इच्छा का 
कुछ तो ख्याल करो 
हमें यूँ न अधर में छोडो आजाओ 
 अब इंतज़ार नहीं होता |
आशा  

सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-1-21) को "यह गणतंत्र दिवस हमारे कर्तव्यों के नाम"(चर्चा अंक-3958) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार कामिनी जी |
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएं72वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
अरे वाह ! कितनी सुन्दर रचना ! प्रवासी पक्षी भी अपने वतन लौटने के लिए वयाकुल होते हैं ! अगले वर्ष फिर आयेंगे ! कुदरत के नियमों से वो भी तो बंधे होते हैं ! प्यारी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंप्रवासी पक्षी की याद में सुंदर रचना!--ब्रजेंद्रनाथ
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