ऐसी आशा नही थी कि
तुमने मुझे जाना न होगा
सतही तुम्हारा प्यार होगा
दोहरी जिन्दगी तुम्हारी
मुझसे सही नहीं जाती |
तुमने मुझे पहले भी न समझा
अब भी नहीं
यह दुराव क्यूँ
कुछ सोचते हो और करते कुछ और |
शब्दों की हेराफेरी
तुम्हें भाती होगी पर मुझे नहीं
मैं जो भी सोचती हूँ
उसी लीक पर चलती
हूँ|
मेरा मन हैं शीशे जैसा
इधर उधर भटकता नहीं
जिस पर होता विश्वास
उसी का अनुकरण करता |
यही बात मुझे
तुमसे करती अलग
चहरे पर लगा एक और चेहरा देख
मुझे अपनापन नहीं लगता |
जी जान से तुम्हें अपनाया
बदली हुई तुम्हारी तस्वीर देखी
मन को ठेस लगी
क्या तुम पहले जैसे
नहीं हो पाओगे
जब केवल मुझे ही प्यार करोगे
जब रूठ जाऊंगी
तुम ही मुझे मनाओगे
वादा करो कहीं फिर से
बदल तो न जाओगे |
आशा
आभार सूचना ले लिए मीना जी |
जवाब देंहटाएंवाह ! रूठने मनाने की शाश्वत परम्परा की याद दिला दी आपकी रचना ने ! सुन्दर सृजन !
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर कथ्य ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
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