खोज में हूँ एकांत की
पर यह सुख मेरे नसीब में कहाँ
जंगल की राह जब भी पकड़ी
प्रकृति ने खोले दरवाजे सभी चराचरों के लिए |
इतना कोलाहल वहां दिखा मन घबराया
वहां से जा बैठा कलकल करते झरने पर
कुछ समय आनंद आया
झरने के कलकल की आवाज सुन |
फिर मन उचटा राह पकड़ी नदी की ओर
जा बैठा उस ऊंचे टीले पर
बहती दरिया के किनारे
सोचा यहाँ अपार शान्ति होगी |
केवल मंद आवाज लहरों की होगी
लिखना चाहा कापी खोली
पर अजब सी बेचैनी हुई
अनचाही बातों ने दिमाग का पीछा न छोड़ा था अब तक
बहुत हताशा हुई जब पुनह विचार किया |
एक वही कारण समझ में आया
मन की शान्ति है आवश्यक लिखने पढ़ने के लिए
घर हो या बाहर वह कहीं भी मिल सकती है
यदि हो नियंत्रण मन पर |
आशा
मन को नियंत्रण करने से ही भटकाव से बचा जा सकता । उत्तम शोध ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंटिप्पणी बहुत अच्छी लगी |
धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
बहुत उपयोगी और प्रेरक रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिये सर |
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-02-2021) को "शीतल झरना झरे प्रीत का" (चर्चा अंक- 3985) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंमन की व्यग्रता का समीचीन वर्णन ! बहुत अच्छी रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sadhna
जवाब देंहटाएं