09 फ़रवरी, 2021

ओस की नन्हीं बूंदे

 


अमृत कलश

Sunday, December 27, 2020

 

ओस की नन्हीं बूँदें

ओस की  नन्हीं बूँदें  

हरी दूब पर मचल रहीं  

धूप से उन्हें  बचालो

कह कर पैर पटक रहीं |

देखती नभ  की ओर हो भयाक्रांत  

फिर बहादुरी  का दिखावा कर

कहतीं उन्हें भय नहीं किसी का  

रश्मियाँ उनका  क्या कर लेंगी |

दूसरे ही क्षण वाष्प बन

अंतर्ध्यान होती दिखाई देतीं  

वे छिप जातीं दुर्वा की गोद में

मुंह चिढाती देखो हम  बच गए  |

पर यह क्षणिक प्रसन्नता

अधिक समय  टिक नहीं पाती

आदित्य की रश्मियों के वार से

उन्हें बचा नहीं पाती |

आशा

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-02-2021) को "बढ़ो प्रणय की राह"  (चर्चा अंक- 3973)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन  में" आज मंगलवार 09 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. सुन्दर रचना ! जीवन भले ही क्षणिक हो सदैव आनंद और परमार्थ से परिपूर्ण होना चाहिये ! ओस की नन्ही बूँदें हमें यही शिक्षा देती हैं !

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  4. धन्यवाद विकास जी टिप्पणी के लिए |

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