है जब तक
प्राणों का आकर्षण
भरमाया सा
मद मोह माया से
छला जाता हूँ
मन के मत्सर से
अनियंत्रित हूँ
बेहाल हुआ
मेरे वश में नहीं
न अपना है
नहीं चंचल चित्त
ना ही वर्जना
तब भी अपनों ने
टोका ही नहीं
अनजान व्यक्ति ने
दी है हिम्मत
बढाया मनोबल
शूरवार हो
फिर कायरता कैसी
साहस बढ़ा
अंतर आत्मा
जागी
कर्मठ हुआ
निर्मल जीवन का
समझा अर्थ
हुआ कर्तव्य निष्ठ |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-03-2021) को "रंगभरी एकादशी की हार्दिक शुफकामनाएँ" (चर्चा अंक 4015) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
मित्रों! कुछ वर्षों से ब्लॉगों का संक्रमणकाल चल रहा है। आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके। चर्चा मंच का उद्देश्य उन ब्लॉगों को भी महत्व देना है जो टिप्पणियों के लिए तरसते रहते हैं क्योंकि उनका प्रसारण कहीं हो भी नहीं रहा है। ऐसे में चर्चा मंच विगत बारह वर्षों से अपने धर्म को निभा रहा है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार सर |
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 23 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंThanks for the information
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंप्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति! --ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ब्रजेन्द्र जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंक्या बात है ! बहुत सुन्दर रचना ! जब अपने पर अटल विश्वास हो तो भरमाना कैसा ! सार्थक सृजन !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद साधना |