प्रकृति नटी करती जब नर्तन
मन रमता जाता उसमें
नाज नखरे उसके सह न पाते
है राज क्या इस नृत्य का |
कभी नरम और कभी गरम
कैसा है मिजाज उसका
कोई मिसाल नहीं
बेमिसाल है निखरा रूप उसका |
जब सागर का जल लेता उफान
लगता भय देख कर
रौद्र रूप उसका
उछाल लहरों का देखा
नहीं जाता
बर्बादी का मंजर सहा नहीं जाता|
जब आपदा आती है अनजाने
में
चुपके से बिना बताए
अस्त व्यस्त होता जन
जीवन
डगमगाने लगता पर्यावरण संतुलन |
होता बहुत कठिन उसका
संरक्षण
पर मानव ही है कारण इसका
यदि ध्यान दिया जाए सतर्क
रहा जाए
सीमित संसाधन का सही दोहन हो |
प्राकृतिक संतुलन पर प्रहार न हो
ऐसी आपदा बार बार न आए
जीवन सुखद हो जाए
जन जीवन सरल सहज हो जाए |
आशा
बहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
जब सागर का जल लेता उफान
जवाब देंहटाएंलगता भय देख कर रौद्र रूप उसका
उछाल लहरों का देखा नहीं जाता
बर्बादी का मंजर सहा नहीं जाता| ---बहुत अच्छी रचना है। बधाई
सुप्रभात
हटाएंटिप्पणी बहुत अच्छी लगी |धन्यवाद संदीप जी टिप्पणी के लिए |
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सर मेरी रचना की सूचना के लिए |
वाह जी वाह ! बहुत ही सुन्दर सृजन !
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