तारों की छाँव में
तारे गिन गिन
कब रात बीती मुझे
याद नहीं |
कब भोर हुई मुर्गे ने दी बाग़
पक्षियों का कोलाहल बढ़ा
यह तक मुझे मालूम
नहीं |
रात तारे गिन थकी भोर हुई तब पलक झपकी
नींद ने थपकी दी कब
सो गई पता नहीं |
प्रातःकाल की रश्मियाँ खेलती हरियाली संग
कब लौटीं अम्बर में यह भी याद नहीं |
धूप चढी आँखें खुलीं
फिर काम की धुन लगी
व्यस्त हुई इतनी कब
शाम हुई पता नहीं |
आदित्य चला अस्ताचल को लाल सुनहरी थाली सा
कभी छिपा वृक्षों के पीछे फिर हुआ उजागर
आसमा हुआ रक्तिम लाल सुनहरा |
रात्रि फिर से आई साथ चाँद तारों को भी लाई
मैंने भी सब काम कर शय्या
की ओर दौड़ लगाई |
यही दिन रात की है
मेरे जीवन की कहानी
कोई परिवर्तन नहीं इसमें
इतना भर है याद मुझे |
जीवन एक रस हुआ है
चाहती हूँ सुकून का थामना पल्ला
कुछ नया करने की लालसा
उपजी है मन में |
आशा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-04-2021 को चर्चा – 4037 में दिया गया है।
जवाब देंहटाएंआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने की सूचना हेतु आभार दिलबाग जी
बहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंचैत्र नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
धन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |आप को भी सपरिवार शुभ कामनाएं
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर टिप्पणी के लिए |
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंएक दिन रात व्यस्त रहने वाली गृहणी की थकान भरी दिनचर्या का सार्थक चित्रण !
जवाब देंहटाएं