21 अप्रैल, 2021

महफिल न सजी पहले सी






 सांझ हुई धुधलका बढ़ा

शमा जली है चले आइये

आप बिन अधूरी है महफिलेशान

जिन मक्तों में दम नहीं है

वही गाए गुनगुनाए जाते हैं

उन में कोई रस नजर नहीं आता |

फीकी  है शमा की रौशनी भी

जब परवाने न हों फिर वह तेज कहाँ

वायु वेग भी सह लिया जाता

अपने ऊपर मर मिटने  वालों के लिए |

तुम गैर नहीं हो फिर भी मुझ से यह दूरी  

यह कैंसी सजा दे रहे हो

महफिल है अधूरी तुम्हारे बिना

गजलें हुई बेसुरी तुम्हारे बिना |

  हैं  सारे गीत अधूरे साजों के बिना

जो रौनक रहा करती थी तुम्हारी उपस्थिती से

शमा थकी रात भर के जागरण से

वह भी अब विश्राम चाहती है |

 अब तो आजाइए  देर से ही सही

अभी है भोर की लालिमा   दूर बहुत

यह दूरी  पाटना कठिन न होगी  

इस महफिल को  फिर से रंगीन कर जाइए |

                                                 आशा 



9 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |

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  2. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-04-2021 को चर्चा – 4,044 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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  3. सुप्रभात
    मेरी रचना की सूचना के लिए आभार सर |

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  4. क्या बात है ! बड़ी रंगीन सी रचना ! बहुत बढ़िया !

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