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नींद भरी अखियों से देखा
हरी भरी धरती को रंग बदलते
मोर नाचता देखा पंख फैला
झांकी सजती बहुरंगी पंखों से |
समा होता बहुत रंगीन
जब कलकल निनाद करता निर्झर
ऊपर से नीचे गिरता झरना
नन्हीं जल की बूंदे बिखेरता |
धरा झूमती फुहारों से होती तरबतर
सध्यस्नाना युवती की तरह
काकुल चूमती जिसका मुखमंडल
स्याह बादल घिर घिर आते
आँखों का काजल बन जाते |
डाली पर बैठे पक्षी करते किलोल
व्योम में उड़ते पक्षी हो स्वतंत्र
चुहल बाजी करते उड़ते ऊपर नीचे
स्वस्थ स्पर्धा है उनका शगल |
बागों में रंगबिरंगे पुष्प भी पीछे न हटते
मंद हवा के झोंको के संग झूमते
तितली भ्रमर भी साथ देते उनका
भ्रमर गीत गाते मधुर स्वर में |
सूर्य किरणे अपनी बाहें फैलाए आतीं
धरती को लेना चाहतीं अपने आगोश में
उनकी कुनकुनी धूप जब पड़ती वृक्षों पर
ओस की बूंदे ले लेती विदा फूलों से |
आशा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२७-०४-२०२१) को 'चुप्पियां दरवाजा बंद कर रहीं '(चर्चा अंक-४०५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुप्रभात
हटाएंमेरी रचना की सूचना के लिए आभार अनीता जी |
अति सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए ओंकार जी |
सुप्रभात टिप्पणी के लिए धन्यवाद जितेन्द्र जी |
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है...खूब बधाई।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंटिप्पणी के लिए धन्यवाद हिमकर जी |
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअरे वाह ! प्राकृतिक सौन्दर्य का बहुत ही सुन्दर मनोरम शब्द चित्र ! बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |