दिन रात तुम्हारा
गुणगान किया
सिर्फ तुम्हारा ही
एकाग्र चित्त हो
ध्यान किया है |
फिर भी न आए
क्या कमीं रहा गई
तुम्हें मनाने में
बिगड़ी बनाने में |
गरमी बीत गई
सावन आया
तुम भूले मुझे
मैं न बिसरा पाई |
|तुम्हारी यह बेरुखी
मुझे रास न आई
इतना तो इंगित करते
कमीं कहाँ रही मेरी अरदास में |
दिन रात की भक्ति
अपना सारा बैभव छोड़ा
अब तो हार गई हूँ
क्या कमी रही है
मुझसे तुम्हारे नेह में |
किस लिए ठानी है
रार तुमने मुझसे
मैं तो हारी
मनुहार तुम्हारी करके |
अब तक जान न पाई
क्या गुनाह किया मैंने
तुम संग नेह लगा
हूँ तुम्हारी अनुरागी |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22 -6-21) को "अपनो से जीतना नहीं , अपनो को जीतना है मुझे!"'(चर्चा अंक- 4109 ) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
सुन्दर प्रस्तुति ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना.. ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंखूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रीती जी टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंप्रीती जी टिप्पणी के लिए धन्यवाद |