जब भी सोचा सोचती ही रही
अवसर न मिला कुछ कहने का
मन ही मन घुटती रही
बेचैनी बढ़ती रही कुछ कह न सकी |
उमस बढी मन के किसी कौने में
स्थिति बद से बत्तर हुई
किससे मन की बात कहूँ
मैं निर्णय न कर पाई |
गिरह मन की न खोल पाई
पर घुटन कब तक सहती
कोई न मिला जिससे कुछ बाँट पाती
अब मन की बेचैनी सहन न होती |
उलझनें बढीं बढ़ती गईं
जीना दुश्वार हुआ पर
समाधान नहीं हो पाया
कोई दिल से अपना न हुआ
जिससे बाँट पाती उलझनों को |
कुछ तो हल्का मन होता
बोझ न उस पर रहता
पर इतनी समझ कहाँ दौनों में
ऐसा कब तक चलता |
दौनों ने राह खोजी अपनी
और चल दिए अलग हो
अपनी अपनी राह पर
मन में मलाल लिए |
अब भी कभी जब सोचती हूँ
मेरा मन नहीं मानता
क्या दौनों का निर्णय सही था
मन तो न टूटता घर न उजड़ता |
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
सार्थक चिंतन ! बढ़िया रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
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