वह चली गई ना रुकी
न रुकना चाहा
ना ही रोकने का मन बनाया
कारण कैसे बताता
मेरा मन ही बैरी हुआ |
न जाने कब से उलझनें
डेरा जमाए बैठी थीं यहाँ
जब तक दूर न होतीं
क्या फ़ायदा बहस में फंसने का |
सोचा जब मामला ठंडा होगा
तभी बात करना उचित होगा
यही सोच कर उसे न रोका
प्यार में व्यवधान न आए
यही विचार रहा मन में |
चोट गर्म लोहे पर पड़े
यह भी तो ठीक नहीं
ठंडी होते ही बात बन जाएगी
मेरा सोच यही था |
आशा
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२३-०९-२०२१) को
'पीपल के पेड़ से पद्मश्री पुरस्कार तक'(चर्चा अंक-४१९६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
Thanks for the information of the post
हटाएंबहुत ही सुंदर रचना!
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंदुविधा असमंजस की बेहतरीन अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएं