22 सितंबर, 2021

वह चली गई


 

वह चली गई ना रुकी   

 न रुकना चाहा

ना ही रोकने का मन बनाया  

कारण कैसे बताता

मेरा  मन ही बैरी हुआ |

न जाने कब से उलझनें

 डेरा जमाए बैठी थीं यहाँ

जब तक दूर न होतीं

क्या फ़ायदा बहस में फंसने का |

सोचा जब मामला ठंडा होगा

तभी बात करना उचित होगा

यही सोच कर उसे न रोका

प्यार में व्यवधान न आए 

 यही विचार रहा  मन में |

चोट गर्म लोहे पर पड़े

यह भी तो ठीक नहीं 

ठंडी होते ही बात बन जाएगी

मेरा सोच यही था  |

आशा

 

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२३-०९-२०२१) को
    'पीपल के पेड़ से पद्मश्री पुरस्कार तक'(चर्चा अंक-४१९६)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. दुविधा असमंजस की बेहतरीन अभिव्यक्ति !

    जवाब देंहटाएं

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