21 सितंबर, 2021

मेरा अस्तित्व


 

समय हाथों से

फिसल रहा

सिक्ता कणों सा

मैं खोजती रही उसे भी  |

पर  खोज अधूरी  रही

उसे तो खोया ही

खुद का वजूद

भी न मिला |

जाने कैसे वह भी

मुझसे मुंह मोड़ चला

कुछ तो खता रही होगी  

उसने मुझे क्यों छोड़ा ?

समय तो गैर  था

पर हाथों के बंधन से

 बंधा था तभी गया 

बंधन ढीले  होते ही |

फिर भी खुद के

अस्तित्व से

 यह आशा न थी 

कभी वह भी धोखा दे जाएगा  |

  हुआ मन अशांत

भरोसा तोड़ दौनों  ने

 मझधार में छोड़ा |

 समय के साथ जा कर

जाने कहाँ विलीन हुआ  

खुद ने ही धोखा खाया  

 अपने अस्तित्व को खो कर |

13 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 21 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-09-2021) को चर्चा मंच       ‘तुम पै कौन दुहाबै गैया’  (चर्चा अंक-4195)  पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--हिन्दी दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  3. मन को छूती सुंदर गहन रचना । बहुत बधाई ।

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  4. बहुत दर्द भरी किन्तु सुंदर रचना, मार्मिक।

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  5. अरे वाह ! बहुत सुन्दर रचना !

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  6. सुप्रभात
    धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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