समय हाथों से
फिसल रहा
सिक्ता कणों सा
मैं खोजती रही उसे भी |
पर खोज अधूरी रही
उसे तो खोया ही
खुद का वजूद
भी न मिला |
जाने कैसे वह भी
मुझसे मुंह मोड़ चला
कुछ तो खता रही होगी
उसने मुझे क्यों छोड़ा ?
समय तो गैर था
पर हाथों के बंधन से
बंधा था तभी गया
बंधन ढीले होते ही |
फिर भी खुद के
अस्तित्व से
यह आशा न थी
कभी वह भी धोखा दे जाएगा |
हुआ मन अशांत
भरोसा तोड़ दौनों ने
मझधार में छोड़ा |
समय के साथ जा कर
जाने कहाँ विलीन हुआ
खुद ने ही धोखा खाया
अपने अस्तित्व को खो कर |
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 21 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंThanks for the information of the post here
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (22-09-2021) को चर्चा मंच ‘तुम पै कौन दुहाबै गैया’ (चर्चा अंक-4195) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--हिन्दी दिवस की
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह! सुंदर!
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंबहुत सुंदर रचनाओं का संकलन।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंमन को छूती सुंदर गहन रचना । बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत दर्द भरी किन्तु सुंदर रचना, मार्मिक।
जवाब देंहटाएंअरे वाह ! बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |