ओ भ्रमर फूलों पर क्यों मडराते
उनके मोह में बंध कर रह जाते
कभी पुष्पों में ऐसे बंध जाते
आलिंगन मुक्त नहीं हो पाते |
भोर की बेला में दृष्टि जहां तक जाती
जहां मिलते दीखते धरा और आसमा
वहीं रहने का मन होता तुलसी का विरवा होता
आँगन में आम अमरुद के पेड़ लगे होते |
दोपहर में सूर्य ठीक सर के ऊपर होता
गर्म हवाओं के प्रहार से धूप से पिघल जाते
प्रातः की रश्मियाँ छोड़ अपनी कोमलता
कहीं सिमट जातीं विलुप्त हो जातीं |
सबसे प्यारा संध्या का आलम होता
सांध्य बेला में मंदिर की आरती में
जब भक्तगण हो भाव बिभोर वन्दना करते
आदित्य अस्ताचल को जाता लुका छिपी वृक्षों से खेलता
कभी स्वर्ण थाली सा हो दूर गगन में अस्त होता |
तितली रानी अपने रंगों से सब का मन मोहतीं
विभिन्न रंगों की होतीं पंख फैला पुष्पों को चूमतीं
उनकी अटखेलियाँ मेरे मन को बांधे रखतीं ऐसे
कई रंगों की पतंगों का मेला
लगा हो व्योम में जैसे |
आशा
वाह , बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2021) को चर्चा मंच "जैसी दृष्टि होगी यह जगत वैसा ही दिखेगा" (चर्चा अंक-4204) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks for the post information
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण क्षणिकाएं !
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