है अस्तित्व तुम्ही से मेरा
जब भी खोजा जानना चाहा
तारों भरी रात में खुद को
पहचानना चाहा |
ढूँढूं कैसे अपना घर वहां
कोई पहचान न छोडी तुमने
कैसे पाऊंगी उसे वहां |
तुम हो दीपक मैं बाती
फिर भी स्नेह बिना
खुद को अधूरा पाती
आसपास ही खोजती रही उसे |
खोज पाती यदि उसको
तनिक भी जीती यदि रौशनी करती
फिर लौ धीमी होती जाती
मंद हवा का झोका आता
साथ साथ लहरारी उसके
जब वायु वेग तीव्र होता
लौ अचानक भभकती बुझने लगती
यही अंतिम पल होते मेरे अपने
इस भवसागर में |
मैं तुम को याद करती भूल पाती
लेती अंतिम साँस जब
ॐ निकलता मुंह से
फिर न लौट पाती |
आशा
सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 11 सितम्बर 2021 को साझा की गयी है....
जवाब देंहटाएंपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
Thanks for the information of the post
जवाब देंहटाएंसुन्दर भावपूर्ण रचना ! बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |