मेरे घर आईं दो नन्हीं महमान
दूध सी धवल रुई सी कोमल
बहुत ही नाजुक टेडीवीअर सी
श्वेत फर की चादर ओढ़े दीखतीं |
आखों में गहराई झील सी
जिनका रंग नीला आसमान सा
मन प्रसन्न हो जाता
जी चाहता देखती रहूँ उन्हें |
उछल कर चलते दोड़ते
म्याऊं म्याऊँ करते पंजे मारते
हैं इतनी मीठी स्वर लहरी
मानो शिक्षा मिली है उन्हें जन्म से
धीरे बोलो अपने स्वर को पहले तोलो
रहती चहल पहल पूरे धर में
जैसे आई बहार हो फूलों की बगियाँ में
अगले कमरे में अपना अड्डा बना लिया है
सोफे पर आजाती हैं कूद कर
थकते ही पैर तान कर सो जाती हैं |
आशा
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-09-2021) को चर्चा मंच "भौंहें वक्र-कमान न कर" (चर्चा अंक-4181) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thanks for the information of the post
जवाब देंहटाएंवाह ! बहुत प्यारी हैं दोनों ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंआभार सहित धन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
प्यारी रचना!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंउषा किरण जी धन्यवाद टिप्पणी के लिए |