12 अक्टूबर, 2021

डलझील के किनारे बैठा


 
 

एक शाम जब सैर को निकला

मौसम बड़ा मनोरम था

सौरभ  सुगंध भीगे फूलों की

दिग दिगंत में बिखरी थी |

दोपहर की तल्खी से  निजाद मिली  

 परिदृश्य बदलते देर न लगी

 वर्षा की नन्हीं बूदों की  

 रिमझिम फुहार आने  लगी  |

तन मन  भीगा अच्छा लगा

 मन की गर्मीं शांत हुई

आनंद की सीमा न रही 

देखी झील की नीली  आभा |

जल में लेम्प पोस्ट की पड़ती छाया 

पक्षियों की घर लौटने की ललक

  देखा कोलाहल मन भावन लगा

बेचैन हुआ जब गौधूलि बेला में  

कलरव  शोर में बदला |

शाम ढली रात की तन्हाई में

सर्द हवा के झोंकों  ने रोका

कुछ और समय बिताना चाहा

 झील के किनारे बैठा उदासी दूर  हुई   |

आशा

 

 

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-10-2021) को चर्चा मंच         "फिर से मुझे तलाश है"    (चर्चा अंक-4216)     पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--श्री दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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  2. सुप्रभात
    आज के चर्चामंच में मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार शास्त्री जी |

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  3. वाह !बहुत ही सुंदर सृजन!
    हमारे ब्लॉग भी पर आपका हार्दिक स्वागत है🙏🙏🙏

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    1. सुप्रभात
      धन्यवाद मनीषा जी टिप्पणी के लिए |

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  4. दल झील का किनारा हो तो उदासी कैसे दूर नहीं भागेगी ! सुन्दर रचना !

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  5. सुप्रभात
    धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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