एक शाम जब सैर को निकला
मौसम बड़ा मनोरम था
सौरभ सुगंध भीगे फूलों की
दिग दिगंत में बिखरी थी |
दोपहर की तल्खी से निजाद मिली
परिदृश्य बदलते देर न लगी
वर्षा की नन्हीं बूदों की
रिमझिम फुहार आने लगी |
तन मन भीगा अच्छा लगा
मन की गर्मीं शांत हुई
आनंद की सीमा न रही
देखी झील की नीली आभा |
जल में लेम्प पोस्ट की पड़ती छाया
पक्षियों की घर लौटने की ललक
देखा कोलाहल मन भावन लगा
बेचैन हुआ जब गौधूलि बेला में
कलरव शोर में बदला |
शाम ढली रात की तन्हाई में
सर्द हवा के झोंकों ने रोका
कुछ और समय बिताना चाहा
झील के किनारे बैठा उदासी दूर हुई |
आशा
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-10-2021) को चर्चा मंच "फिर से मुझे तलाश है" (चर्चा अंक-4216) पर भी होगी!--सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।--श्री दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
जवाब देंहटाएंडॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआज के चर्चामंच में मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार शास्त्री जी |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंवाह !बहुत ही सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंहमारे ब्लॉग भी पर आपका हार्दिक स्वागत है🙏🙏🙏
सुप्रभात
हटाएंधन्यवाद मनीषा जी टिप्पणी के लिए |
दल झील का किनारा हो तो उदासी कैसे दूर नहीं भागेगी ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |