11 नवंबर, 2021

मन के भाव पिरोए एकांत में


 

गीत गाता रहा गुनगुनाता रहा 

  एकांत में 

मन के भाव पिरोए हैं 

बंद कमरे में |

झांका तक नहीं  बाहर

किसी अनजान को

मुझे किसी की दखलन्दाजी  

अच्छी  नहीं लगती 

किसी भी काम में |

जिस कार्य को पूर्ण करने का

 बीड़ा उठाया है

उसे पूरा करने की

क्षमता भी  है मुझ में |

अधूरा कार्य छोड़ना

 उससे पलायन करना

नहीं लगता

 न्यायसंगत मुझे |

उस के साथ अन्याय

मुझे पसंद नहीं

गीत कहाँ तक सफल हुआ

 कैसे जानूं

जब सुने कोई

 खुद को पहचानूं |

है अपेक्षा यही कि

 गीत  परिपूर्ण हो

यदि सफलता मिले उसमें  

और नया गीत बने |

अधिक उत्साह से

 कुछ और लिखूं

धुन बनाऊँ गुनगुनाऊँ 

जो मन को छुए ऐसा गीत रचूं|

आशा 


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.11.21 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा|
    धन्यवाद

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      दिल्बसगाजी आभार मेरी रचना की सूचनाचर्चा मंच पर होने के लिए |

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  2. उत्तर
    1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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    2. सुप्रभात
      धन्यवाद प्रीती जी टिप्पणी के लिए |

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  3. सुप्रभात
    धन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |

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  4. उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद जिज्ञासा जी टिप्पणी के लिए |

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  5. सुप्रभात
    धन्यवाद भारती जी टिप्पणी के लिए |

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  6. स्वागत है ऐसे सुन्दर गीत का ! बहुत ही सुन्दर रचना !

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    उत्तर
    1. सुप्रभात
      धन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |

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