गीत गाता रहा गुनगुनाता रहा
एकांत में
मन के भाव पिरोए हैं
बंद कमरे में |
झांका तक नहीं बाहर
किसी अनजान को
मुझे किसी की दखलन्दाजी
अच्छी नहीं लगती
किसी भी काम में |
जिस कार्य को पूर्ण करने का
बीड़ा उठाया है
उसे पूरा करने की
क्षमता भी है मुझ में |
अधूरा कार्य छोड़ना
उससे पलायन करना
नहीं लगता
न्यायसंगत मुझे |
उस के साथ अन्याय
मुझे पसंद नहीं
गीत कहाँ तक सफल हुआ
कैसे जानूं
जब सुने कोई
खुद को पहचानूं |
है अपेक्षा यही कि
गीत परिपूर्ण हो
यदि सफलता मिले उसमें
और नया गीत बने |
अधिक उत्साह से
कुछ और लिखूं
धुन बनाऊँ गुनगुनाऊँ
जो मन को छुए ऐसा गीत रचूं|
आशा
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.11.21 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुप्रभात
हटाएंदिल्बसगाजी आभार मेरी रचना की सूचनाचर्चा मंच पर होने के लिए |
बहुत सन्दर चित्रण मैम
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद प्रीती जी टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
सुंदर एहसासों का सृजन ।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद जिज्ञासा जी टिप्पणी के लिए |
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भारती जी टिप्पणी के लिए |
स्वागत है ऐसे सुन्दर गीत का ! बहुत ही सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
This post is simply and beautiful.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
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