मन बावरा माना ना
कुछ भी जानना चाहा ना
क्या कहाँ चाहिए उसे
उसने पहचाना ना |
यहीं मात खाई उसने
जीवन में सबसे हारा
कभी सफल न हो पाया
कितनी भी कोशिश की उसने|
यही हार दुःखदायी हुई
कल के सपने धराशाही हुए
गिर कर चकना चूर हुए
कोई स्वप्न साकार न हुआ |
मन को बहुत संताप रहा
कुछ भी नहीं वह कर सका
सफलता पाने के लिए
जीवन सफल बनाने के लिए |
सालता रहा जीवन भर
क्या कारण रहा होगा
जीवन असफल होने के लिए |
उसकी जड़ तक
वह पंहुंच न सका
बावरा था बावारा ही रहा
कुछ नया हांसिल न हुआ |
आशा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१८-११-२०२१) को
' भगवान थे !'(चर्चा अंक-४२५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुप्रभात
हटाएंआभार अनीता जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए चर्चा मंच के आज के अंक में |
मन बावरा जानें सब पर मानें ना
जवाब देंहटाएंयथार्थपरक रचना
धन्यवाद
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्य्वाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
जीवन में कभी कभी ऐसा समय भी आता है ! यथार्थपरक एवं भावपूर्ण प्रस्तुति !
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