है ऐसा क्या
उन यादों में
स्वप्नों में भी
यादों से बाहर
न निकल पाई |
लाखों जतन किये
सब हुए व्यर्थ
मैं ना खुद सम्हली
न किसी को
उभरने दिया |
जितनी भी कोशिश की
सब व्यर्थ हो गई
यादों का दलदल
पार न कर पाई
उसी में डूबती
उतराती रही |
किसी ने जब
हाथ बढाया
बचाने के किये
झटका हाथ |
फिर से वहीं
डूबती रह गईं
कोशिश का मन
अब न हुआ
उसमें ही खो गई |
यही यादें बनी
जीने का संबल मेरा
कहाँ समय बीता
अब याद नहीं |
आशा
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(7-11-21) को भइयादूज का तिलक" (चर्चा अंक 4240) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंआभार मेरी रचना को शामिल करने के लिए चर्चा मंच में |
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
बहुत ही सुंदर व हृदयस्पर्शी रचना!
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद मनीषा जी टिप्पणी के लिए |
वाह ! क्या बात है !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |