हो चंचल चपल
विद्युत की तरह
कभी शांत नहीं होतीं
तुमसे सब हारे |
अपने मन को
बहुत समझाया
पर वह न माना
क्या करती ?
बारम्बार तुमसे उलझता
कितनी बार प्रयत्न किये
पर सब व्यर्थ हुए
तुम्हें न बदलना था
न बदलीं किसी कौने से |
अपनी बातों पर
अडिग रहीं
ना कभी सुधरीं
सभी यत्न विफल रहे |
हार कर मैंने ही
मान ली हार
अपनी बात मनवाने के लिए
कदम पीछे हटा लिए |
पर मन में अवश्य
एक विचार आया
है व्यर्थ तुम जैसी
अड़ियल से उलझना
फिर खुद ही दुखी होना |
वही सलाह है सही
अपनी राह पर चलो
किसी से मत उलझो
दाएं बाएँ मत देखो |
अब मुझे समझ आया
होगा क्या लाभ
आग से हाथ मिलाने से
खुद ही के हाथ जलाने से |
आशा
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जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपको आलोक.जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी टिप्पणी के लिए |
सौ टका खरी बात !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |