09 दिसंबर, 2021

खुली किताब के सारे पन्ने


 

खुली किताब के सारे पन्ने

एक आदि ही पढ़ पाई

क्यूँ कि समय न था

मन मसोस कर रह गई |

जीवन का संग्राम

थमने का नाम नहीं लेता

मन उलझा उलझा रहता

 कितनी बातों को दर किनारे रखता |

कभी ख्याल मन में आता

किससे अपना कष्ट बांटूं

किसे अपना हम राज बनाऊँ

उसे कहीं खोजूं खोजती ही न रह जाऊं |

यूं तो जीवन है सुखी संपन्न

कोई कमीं नहीं मुझको

फिर भी यदि असंतुष्ट रहूँ

किसको दोष दूं |

यही फितरत मन की मुझे

कहीं की भी नहीं रहने नहीं देती

उलझी उलझी सी हैं जिन्दगी

ठीक से जीने नहीं देती |

आशा 

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