खुली किताब के सारे पन्ने
एक आदि ही पढ़ पाई
क्यूँ कि समय न था
मन मसोस कर रह गई |
जीवन का संग्राम
थमने का नाम नहीं लेता
मन उलझा उलझा रहता
कितनी बातों को दर किनारे रखता |
कभी ख्याल मन में आता
किससे अपना कष्ट बांटूं
किसे अपना हम राज बनाऊँ
उसे कहीं खोजूं खोजती ही न रह जाऊं |
यूं तो जीवन है सुखी संपन्न
कोई कमीं नहीं मुझको
फिर भी यदि असंतुष्ट रहूँ
किसको दोष दूं |
यही फितरत मन की मुझे
कहीं की भी नहीं रहने नहीं देती
उलझी उलझी सी हैं जिन्दगी
ठीक से जीने नहीं देती |
आशा
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
जवाब देंहटाएंमन को संयत रखा जाये तो हर उलझन सुलझ जाती है ! अच्छी अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |