खिला गुलाब
बाग़ में डाल पर
सोचता रहा
उसके जीवन की
क्या कहती कहानी
कभी कली रही थी
पत्तों में छुपी
पत्तियों के कक्ष से
झांकती कली
खिली पंखुड़ी सारी
फूल खिला है
हुआ लाल गुलाब
वह अकेला नहीं
झूलता रहा
रक्षक रहे पास
बचाते रहे
उसको बैरियों से
तितलियों की
भौरों की छेड़ छाड़
उसे भाती है
प्यार दुलार उनका
स्वीकार किया
वायु बेग सहना
भी सीख लिया
उससे बचने की
कोशिश न की
विरोध की क्षमता
नहीं है अब
देख लिया जीवन
मन मुदित
हुआ जीवन पूर्ण
प्रभु के चरण में
खुद को वहां
अर्पित कर दिया |
आशा
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार(21-12-21) को जनता का तन्त्र कहाँ है" (चर्चा अंक4285)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
सुप्रभात
हटाएंआभार कामिनी जी मेरी रचना को आज के चर्चामंच अंक में स्थान देने के लिए |
वाह सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
बहुत अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंThanks for the comment sir
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