जंगल में दंगल
हुआ
वर्चस्व की छिड़ी
लड़ाईं
सब ने अपने पक्ष रखे
एक भी सही ढंग से
रख न सका अपने पक्ष
को |
यही हाल है आज
भारत
में प्रजातंत्र का
हर व्यक्ति खुद को नेता कहता
बड़ी बड़ी बातें करता |
जिसमें हो दम ख़म
उसका ही अनुसरण करता
खुद का कोई नियम
धर्म नहीं
ना ही कोइ विचार धारा|
खुद का कोई सोच नहीं
दो पल्लों की तराजू में लटका
यही सोचता रहता
इधर जाऊं या उस ओर |
कहीं भी ईमानदारी नहीं
सब अपने घर भरने में लगे हैं
परोपकार का दिखावा करते
पर मन में बरक्कत नहीं |
टेबल ऊपर से पाक साफ
नीचे से लेन देन चलता
भीतर से उसे
खोखला
कर देता |
चंद लोगों के पास ही
धन की भरी तिजोरी है
आम आदमी उलझा है
दो जून
की रोटी में |
बेरोजगारी ने सर उठाया है
एक ऑफिस से दूसरे में
युवा मारे मारे फिरते है
कोई आय का स्रोत नहीं
जिसके सहारे जी पाएं |
जब कोई ठौर भीं न दीखता
घिर जाते बुरी संगत में
जब नशे में झूमते घर आते
आए दिन घरेलू हिंसा दोहराते |
आशा
आशा
सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और समाज में व्याप्त बदहाली का सटीक चित्रण करती सार्थक रचना ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |