तुम दीपक मिट्टी के बने
मैं बाती तुम्हारी
सहचरी
जन्म जन्म की साथी
मेरा साथ स्नेह वायू
का
तुमको लगता प्यारा परिवार |
तुम अकेले क्या कर लेते
बिना हमारे साथ के
फिर भी कोई महत्व न
देते
क्या यह गलत नहीं ?
हमारी भी चाहत है
कोई हमें भी मान दे
आदर सम्मान दे
तुम्हारे साथ में |
कभी यही सोच
मन को ठेस पहुंचाता
इतनी तंगदिल
मैं हुई कैसे ?
मन में ख्याल आता
क्या हमारा कोई
कर्तव्य नहीं
अधिकार कैसे बड़ा हुआ कर्तव्य से
मन खिन्न हो जाता थोथे उद्गारों से
अपने तुच्छ विचारों से |
आशा
बाती का आत्ममंथन अच्छा लगा ! सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |
सुंदर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्य्वाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |