वह हारा है
जब की मनमानी
अपनों ही से
पर्वत ऊंचा
पूरी आस्था खुद पे
चढ़ पाऊंगा
चंचल नहीं
रही गंभीर सदा
पर सफल
कैसा हंसना
अजी है रोना कैसा
यहीं रहना
छलका जल
चली है चाल तेज
गगरिया से
चली कामिनी
लहराती चूनर
नयन झुका
बंधन मुक्त
हुआ यहीं उन्मुक्त
खुले व्योम में
आशा
बढ़िया हाइकु ! अंतिम हाइकु की दूसरी पंक्ति चेक कर लें !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |