प्रति दिन की तकरार अकारण
सारी शान्ति भंग कर देती
जितना भी बच कर चलो
कहीं न कहीं उलझा ही
देती |
जितना प्रपंचों से दूरी रहे
जीवन में शान्ति बनी रहती
ना तेरी मेरी बहस को जगह मिलती
उस बहस का लाभ क्या जिसका निष्कर्ष न हो |
यदि अनावश्यक तर्क कुतर्क हों
समय की बर्वादी होती
मन की शान्ति भंग हो जाती किसी कार्य में मन नहीं लगता |
आजादी बहस की किसने दी तुम्हें
यदि दी भी तब यह नहीं बताया क्या
किस बात पर हो बहस और किस हद तक
हर बात पर बहस शोभा
नहीं देती |
खुले मंच पर बहस का अपना ही आनंद होता
अकारथ वाद संवाद शोर में परिवर्तित होता
जब यह हद भी पार होती अपशब्दों का प्रयोग होता
इसे कोई भी समझदारी
नहीं समझता |
मन संतप्त होता यह
है कैसा प्रजातंत्र
लोक लाज ताख में
रखकर खुलकर
अपशब्दों का प्रयोग किया जाता
बड़े छोटों की गरिमा
रह जाती किसी कौने में |
आशा
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आलोक जी टिप्पणी के लिए |
इन दिनों ऐसी ही बहसों का चलन हो गया है सोशल मीडिया पर ! नाम भी ऐसे ही रखे जाते हैं स्तरहीन ! सार्थक रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |