31 जनवरी, 2022

उलझन मन की


 

उलझन होती जब मन में

कुछ भी नहीं होता सोच विचार में 

 सोचते ही बनी बात बिगड़ जाती है 

 उलझन और बढ़ती जाती |

जब भी मंथन किया मन का 

 जानना चाहा इतनी बेचैनी क्यूँ ?

 उत्तर जान ना पाई निराशा हुई 

मन और बोझिल हो गया |

 अनर्गल बातों ने लिया विकराल रूप  

किया बेचैन मन को नींद का टोटा हुआ

 आई न नींद स्वप्न सुहाने भी खो गए   

किये नैन बंद कब भोर हुई याद नहीं |

चिड़ियाँ चहकीं प्रातःकिया वंदन 

भुवन भास्कर ने खुश हो स्वीकारा  

 रश्मियाँ आईं खिडकी से झांकती

अनजानी व्यथा ने घर किया मन में |

डरती हूँ अस्थिर है मन चंचल 

आगे क्या होगा इसके विचलन से

क्या वह स्थान मुझे मिल पाएगा ?

जिसकी अपेक्षा रही मुझे बचपन से |

मुझे कौन बचाएगा इस उलझन से

 चित्र न बना पाई उसका कैनवास पे

सातों रंग न भर पाई जीवन के  

जितनी की कोशिश व्यर्थ हुई |

असफलता हाथ लगी

 कुछ न कर पाई  

मन संतप्त हो खोने लगा अस्तित्व अपना 

डूबी स्वयं अपने  आप में |

कहाँ भूल हुई मुझ से

 जिसकी याद नहीं  

 उलझनें ही उलझनें हैं 

जिनसे मुक्ति नहीं |

  आशा

 

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