उलझन होती जब मन में
कुछ भी नहीं होता सोच विचार में
सोचते ही बनी बात बिगड़ जाती है
उलझन और बढ़ती जाती |
जब भी मंथन किया मन का
जानना चाहा इतनी बेचैनी क्यूँ ?
उत्तर जान ना पाई निराशा हुई
मन और बोझिल हो गया |
अनर्गल बातों ने लिया विकराल रूप
किया बेचैन मन को नींद का टोटा हुआ
आई न नींद स्वप्न सुहाने भी खो गए
किये नैन बंद कब भोर हुई याद नहीं |
चिड़ियाँ चहकीं प्रातःकिया वंदन
भुवन भास्कर ने खुश हो स्वीकारा
रश्मियाँ आईं खिडकी से झांकती
अनजानी व्यथा ने घर किया मन में |
डरती हूँ अस्थिर है मन चंचल
आगे क्या होगा इसके विचलन से
क्या वह स्थान मुझे मिल पाएगा ?
जिसकी अपेक्षा रही मुझे बचपन से |
मुझे कौन बचाएगा इस उलझन से
चित्र न बना पाई उसका कैनवास पे
सातों रंग न भर पाई जीवन के
जितनी की कोशिश व्यर्थ हुई |
असफलता हाथ लगी
कुछ न कर पाई
मन संतप्त हो खोने लगा अस्तित्व अपना
डूबी स्वयं अपने आप में |
कहाँ भूल हुई मुझ से
जिसकी याद नहीं
उलझनें ही उलझनें हैं
जिनसे मुक्ति नहीं |
आशा
मन की उथल पुथल की सुन्दर अभिव्यक्ति ! सार्थक सृजन !
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