मैं दोपहर की धूप धनी
तुम घनेरी छाया वटवृक्ष की 
असंख्य जीव लेते आनंद 
तुम्हारी छाया में रुक कर |
मुझ से सब दूर भागते 
कोई न आता पास मेरे 
जल जाने के भय से 
यही दुःख सालता रहता मुझे |
विचार सोचने को करता बाध्य
सब मेरे ही साथ क्यूँ किस लिए?
 मेरा किसी से कोई वैर नहीं है 
समय पर सब मेरा भी उपयोग करते
अब तो जानते हुए भी दुःख न होता 
कि हूँ तपती धूप दोपहर की 
जिससे जलता तन सब का 
सभी धन्यवाद दिए बिना ही चले देते| 
मतलब की है दुनिया सारी 
किसी से क्या गिला शिकवा करूं
मतलब होता तो रिश्ते बना लेते 
पर पलट कर याद तक नहीं करते |
यही अच्छाई तुम्हें सब से जुदा करती
 किसी से कोई अपेक्षा नहीं तुम्हें  
आया जो पास तुम्हारे
उसे भी समेटा बाहों में तुमने |शीतल करती तन छांव तुम्हारी
सब देखते आशा से तुम को 
 छाँव की  उन्हें  अपेक्षा रहती    
वही जीवन में रस भरती |
आशा 
 
 
वाह लाजबाव सृजन
जवाब देंहटाएंThanks for the comment
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुंदर😍💓
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
हटाएंधन्यवाद मनीषा जी टिप्पणी के लिए |
अजी ऐसी कुंठित सोच क्यों ? जाड़ों में देखिये धूप के एक एक कतरे के पीछे भागते हैं लोग अपनी कुर्सी उठाये ! बारिश में जब कपड़े नहीं सूखते तीन तीन दिन तो धूप के लिए मिन्नतें करते हैं लोग ! हर मौसम का महत्व होता है ! छाँह का भी और धूप का भी ! बढ़िया सृजन !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सर मेरी रचना को चर्चामंच पर स्थान देने के लिए |
टिप्पणी बहुत अच्छी लगी |धन्यवाद टिप्पणी के लिए |
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