रैना बैरन हुई उसकी
पलकें न झपकीं एक पल भी
इन्तजार किसी का करते
रात्रि कब बीती मालूम नहीं |
भोर हुआ जब मुर्गा बोला
पक्षियों ने बसेरा छोड़ा
चल दिए भोजन की तलाश में
सर पर खुले आसमान में |
धूप खिलते ही तंद्रा टूटी उसकी
जल्दी किया प्रातःवंदन
फिर कियी जलपान तैयार हुई
चल दी अपने कार्य स्थल की ओर|
किसी कारण जब मन होता विचलित
उसका असामान्य व्यवहार देख
सब उत्सुक रहते कारण जानने को
किसे बताती क्यों निदिया बैरन हुई |
उसे समझने में देर न लगती
क्या कारण रहता रात्रि जागरण का
तुम्हारी राह देखना मंहगा पड़ता
बहुत लज्जा आती पर क्या करती |
बहाने भी कितने बनाती
भारी पलकें सब बतातीं
घुमा फिरा जब बातें होतीं
सच्चाई सामने आ ही जाती |
फिर भी पूरी बात बता ना पाती
वह कहाँ उलझी रही किन बातों में
मन कैसे उलझा उन सब में
हुई बैरन रात यह कैसे बताती |
आशा
ख़त का मजमून भाँप लेते हैं लिफाफा देख के ! चेहरा आइना होता है दिल का ! सारी कैफ़ियत दे देता है ! सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |