मैं कैसे कोई बात करूं
अपने मन की आगाज सुनूँ या
किसी के मन की बात पर
ठहाका लगाऊँ मुस्कराऊँ |
उलझन में फंसी हूँ
मेरा मन क्या सोचता
सोच किस ओर जाता
अभी तक स्पष्ट नहीं है |
यही डावाडोल होते विचार
मन बहका सा है
कहा नहीं मानता
कैसे उसे समझाऊँ |
सही राह दिखाने के लिए
कुछ तो दृष्टांत हों
जिनका अर्थ निकलता हो
मन नियंत्रित होता हो |
आशा
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जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार रवीन्द्र जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए आज के अंक में |
आदरणीया आशा जी, 'मन बहका सा है' से 'मन नियंत्रित होता हो।' की यात्रा ही मन के भटकाव को संतुलित करता है। बहुत सुंदर रचना, खासकर ये पंक्तियाँ:
जवाब देंहटाएंमन बहका सा है
कहा नहीं मानता
कैसे उसे समझाऊँ |
सही राह दिखाने के लिए
कुछ तो दृष्टांत हों
जिनका अर्थ निकलता हो
मन नियंत्रित होता हो |
साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ
मन के ऊहापोह को उकेरती सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सदित धन्यवाद विश्व मोहन जी मेरी रचना की टिप्पणी के लिए |
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सहित धन्यवाद मर्मग्य जी मेरी रचना की टिप्पणी के लिए |
अजी उलझन कैसी ? जो मन कहे वही सुनिए और जो दिल करे वही करिए ! मन के असमंजस को अभिव्यक्ति देती सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना टिप्पणी के लिए |